बीते मंगलवार लगभग 25 सालों बाद मैं अपने ननिहाल, रहली, पहुँचा। वहाँ 12 घंटे बिताए और यूँ लगा मानो उन 12 घंटों में एक पूरी ज़िन्दगी जी ली हो। आधा गाँव पैदल ही घूम लिया। एक बाल उत्साह, उमंग, और आश्चर्य से उन सभी चीज़ों को देखा जहाँ गर्मी की लंबी छुट्टियों और मामाओं व मौसियों की शादियों के दौरान हर रोज़ जाया करते थे।
सब कुछ इतना जीवंत है वहाँ, अभी भी! हाँ, बहुत कुछ बदल गया है; लेकिन कुछ चीज़ें अभी भी वैसी ही हैं―25 साल बाद भी―जैसे पहले थीं, मानो समय वहाँ रुक गया हो।
जहाँ-जहाँ से गुज़रता हृदय-पटल पर बचपन के दृश्य उभरने लगते, जैसे पर्दे पर कोई फ़िल्म चल रही हो।
उस समय ननिहाल में 50 से 60 सदस्य हुआ करते थे। 30 से 40 की तो बच्चों की ही फ़ौज थी। दिनभर धमाचौकड़ी मचाना जीवन का एकमात्र उद्देश्य था। सुबह उठते ही हर तरफ़ से हँसी-ठिठोली की आवाज़ें आना शुरू हो जाती थीं। कभी-कभी तो बातों-बातों में रात गुज़र जाती थी। सब अपनी-अपनी कहानियाँ सुनाते रहते थे, क्या बच्चे, क्या बड़े। क्या महफ़िलें जमती थीं! न मोबाइल, न टीवी, फिर भी मनोरंजन असीम!
इन कहानियों की महफ़िलों का कोई समय या स्थान निश्चित नहीं था; जहाँ बैठ जाते, वहीं शुरू हो जाते। सुबह उठते, दर्जनों लोग एक साथ मंजन करते, तो फिर कहानियाँ-चुटकुले बरसने लगते। यही सिलसिला चाय के दौरान चलता रहता। Tea-time तो 4-6 घण्टे चलता। सुबह 4:00 बजे बड़ा सा पतीला चूल्हे पर रख जाता, तो 9-10 बजे तक उस पर चाय बनती ही रहती। लगभग हर सदस्य के लिए 3-4 कप चाय पीना बहुत आम बात थी।
ताश खेलना भी हमारा एक लोकप्रिय मनोरंजन था। इतने अलग-अलग रंगों और आकारों की ताश की पत्तियाँ हुआ करती थीं। छोटे बच्चों के लिए माचिस की छोटी डिब्बी के बराबर भी ताश की गड्डी आती थी! अपनी-अपनी उम्र के अनुसार सभी ताशबाज़ों की टोलियाँ बनाते थे।
इतने सारे बच्चों के लिए बाथरूम कहाँ से आएँ?! तो नहाने-धोने के लिए घर के सामने के एक कुएँ पर सारे बच्चे पहुँच जाते। किसी बड़े भाई-बहन या मामा-नाना की ड्यूटी लगा दी जाती जिनका काम था कुएँ से पानी निकाल-निकाल कर बच्चों पर उड़ेलते जाना! घंटों नहाते ही रहते थे! कभी खेत चले जाते, वहाँ की टंकी में नहाते।
खाने का लंगर तो रोज़ ही लगता था। लेकिन कभी नहीं हुआ कि खाने में देर हुई हो या किसी प्रकार की सुख-सुविधा की कोई कमी रही हो। मेरे नाना-नानियाँ कैसे सँभाल लेते थे इतने बड़े कुनबे को कल्पना कर पाना भी असंभव है!
कभी-कभी माँसियों के साथ हम बच्चे पास की नदी में चले जाते नहाने! फिर लौटते समय पास ही स्थित किले वाली मैया (एक सिद्ध महिला) के मंदिर पहुँच जाते और वहाँ की भभूत, कच्चा नारियल, चना-चिरौंजी भरपूर खाते। उस भभूत का स्वाद इतना अनोखा था कि 25 साल बाद जब परसों भभूत दोबारा चखी तब भी उसमें वही स्वाद था!
घर में कुछ गायें थीं। उनके घर को सार कहते थे। हमारी गली की सारी गायों को एक चरवाहे दादा घास चराने लेकर जाते थे। जब शाम को गायें लौटतीं, तो उनके गले में बँधी हुई घंटियों की आवाज़ सुनकर मन खिल उठता। हमारी गायें भी हमसे मिलने कितनी आतुरता से दौड़ती, मानो माँ अपने बच्चों से मिल रही हो! हमारे नानाजी तीन भाई थे। उनमें से सबसे छोटे को गायों से बड़ा प्रेम था। हम कुछ बच्चे उनके साथ सुबह-शाम सार में जाते और उन्हें गायों के लिए सानी (उनका खाना) बनाते और दूध दुहते देखते। नानाजी मिट्टी की बड़ी सुंदर गायें भी बनाते और हमें उपहार में देते।
ननिहाल में बिताए हुए समय ने न केवल मेरे बचपन को रंग और रस से भरा बल्कि बड़े होने पर मुझे यह महसूस हुआ कि मेरे जीवन में जो भाव की प्रबल ऊर्जा और मानवीय संबंधों को बनाने एवं पोषित करने की क्षमता है उसका एक बहुत बड़ा कारण ननिहाल में बिताया हुआ समय है। साथ ही, मेरे जीवन में जो स्थिरता आई है उसका मुख्य कारण तो योग और ध्यान रहा है, लेकिन साथ ही रहली ने जो प्रेम की तृप्ति दी है उसने मुझे व्यर्थ के दौड़-भाग यानि बहुत बड़ा बनना है; ख़ूब पैसे कमाना है; सामाजिक रुतबा, राजनीतिक शोहरत पानी है, इन सबसे मुक्त किया है।
रहली ने मेरी आत्मा पर जो आनंदामृत उड़ेला है, यूँ लगता है मानो जन्मों-जन्मों की प्यास मिट गई हो। सच है, रहली के ददरया परिवार का हिस्सा बन पाना पिछले कई जन्मों के पुण्य कर्मों का फल ही है।